प्राकृति की विडंबना

कुछ है कही ख़ाली सा
सबकुछ होकर भी
कुछ तो है जो नही मिला - कुछ है जो पा सकते थे
कुछ तो जिसके पाने से हो जाती आशाए पूरी
भर जाती जाती की उम्मीदें
एही सोच कर मान ने हमे मान को हमने
रखा उदास
कितनी वो ख़ूबसूरत सुबहे हमने ना देखा उगते सूरज को
ना ही देखे उसके बिखरे रंग आशमान मे साँझ पहर
ना देखा कब कोपले उगी , कब फूल खिले
कब रंग बदले पत्तो ने और बिखर गये
फिर आने को
अपनी आँखो को बंद किए
हम सोचते रहे कितना ख़ाली है मान का आँगन
फिर राते घिरी तारे भी आए
वो टीम टीम करते जागे सारी रात
इस उम्मीद से की कभी तो बदलेगा मौसम
मेरे मान का
मयुश लौट गये वो भी देकर ये काम सूरज को
लेकिन दिनकर भी खोल ना सके मेरी आँखो
करके अनदेखा वो सब कुछ जो मिल सकता था
जिसमे थे जीवन के अर्थ
जिनसे मिलती उम्मिदे आगे बढ़ने की
यह मानव प्राकृति की विडंबना देखिए
खोते आए हैं हम सदा से उन अनगिनत महत्वपूर्ण लम्हो को
जिनमे हमको जीना था
चलो आज तो खोले अपनी आँखे देखे समझे
और पाए वो जो हमे पाया है
हाँ हमने बहुत कुछ पाया है
ख़ुद समझाए कितना तो पाया है

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