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Showing posts from October, 2016
এখন তো সময় আছে   এখন কিসের তাডা   এখন বলে রাখি   যেসব ছিল বালার   আমার কথার কলি   তোমার চোখের হাসি   স্বপ্নের আসা যাওয়া   হওয়ার যেন ভাসি   কল্পনার যে সেতু   বেঁধে রেখেছে দুই ঘাট   এমনি করে যদি জীবন   কেটে যায় , কেটে যাক   আর সূর্য আসবে না   আর কাজ নাই কোনো বাকি   রাত্রি কন্ঠে , শব্দ মিশিয়ে  চোখে চোখে তোমায় রাখি
  जब समाज हो जाये अपनों से बढ़कर जब सम्प्रदाय हो संस्कारो से ऊपर जब मर्यादा की हो जाये प्रीत से टक्कर और बिश्वाश न हो पाए दृढ़ता से तत्पर विनाश सुनिश्चित
हमी ने शायद पी डाली इन होठो की शहद सारी की मीठे बोल जबान पे अब देखो कम ही आते हैं मेरी नज़रो में आ बैठा ये तेरे नूर का पानी अब तो जिधर भी देखो नज़ारे नम ही आते है
कल . थोड़ी सी ज्यादा हो गयी थी तेरे नशे की सरगर्मी मदहोशी से बढ़कर थी आज आंख नहीं खुलती अलसायी सी हूँ चुस्कियो में कहा पता चला इतनी ज्यादा हमें चढ़ गयी थी
किसी ने रखा है तुम्हे छिपाकर सबकी नज़रो से नज़र में देखा करता है अक्स हवा बादल चाँद हर घड़ी पहर में   थामे दिल करके धड़कनो की चाल धीमी तनहा शहर में   ढूंढता है रखता है यकी की वक़्त है अभी दुआओ के असर में
किसने कहा था आसान होगा किसने कहा था न वीरान होगा न होंगे इनमे कांटे और लहू हाथ पे अपनों का ये दुनिया है मेरे बंधू नहीं ये सफर सपनो का मैंने कब कहा था हँसी खेल में कटेगी यहाँ तो बात बात पे तुम्हारी आरज़ू बटेगी खोएंगे भी छूटेंगे भी पडेगा तुमको ही चुनना जो बाद में पछताओ तो हमसे मत कहना
हवा तो बस एकबार चली थी जब तुमने कंधो पे सर रखा था और वो जुल्फ उडी थी हवा तो बस उसबार चली थी   आसमान तो लाल एकबार हुआ था जब हथेलियों पे तेरे मेहँदी का रंग चढ़ा था और खुशबु से ये आंगन मदहोश हुआ था आस्मां लाल हाँ उसीबार हुआ था   ढली थी धूप बस एक बार नज़रे झुकी थी और तुमने इकरार किया था जलती तपती धरती को तुम्हीने सुकून दिया था हाँ , बस एकबार ढली थी धूप

पगडंडिया

पगडंडिया जाती है जो घर को मेरे कीचड़ से सनी काँटों से भरी तब पार कर आये थे हम यु कूद फाँद , लेके छलांग अब बस देख पाते हैं उस पार दूधिया चाँद कर के बंद आँखों को उतरती नसों में हैं हवा जो बहके आती है कहानिया सुनाती है शहनाई तो कभी ढोल खोलती हँसी की पोल छलकती है प्यालो से पलकों की , सब बेमोल अब ताकते है निराश नयन देते हैं विदा , अब हम कहाँ क्या पाएंगे न जाने क्यों आये थे न जाने , कब जायेंगे
हौसले पछाड़ने को करते हो इतनी साज़िशें ए मन जरा सा कभी मेरा भला भी सोच लिया होता   लगे रहते हो दिन रात तलासने इसमें उसमे अपना रूप ए मन कभी हाथो की तानी नसों में शुकुन देख लिया होता   करके विदा लबो से जिसको रख लिया संजो के ताउम्र ए मन काश की सच कह के वो दामन रोक लिया होता
बुनते होये धागों को जब उंगलियो में लपेटती होगी कुछ तो हिस्सा उनका बाकि , पीछे छोड़ती होगी ? वरना हर बार क्यों जब ये स्वेटर ओढ़ते हैं तुम्हारे छू जाने से एहसास गुजरते हैं शिकायत भी होती है की जो तुम अनवरत बुनती हो क्यों ये अनुभव बस मेरे सबमें बाटती फिरती हो ?
मैं कविता नहीं लिखती बस शब्द सजाती हूँ अलग अलग तरीके से की मिले पंख उन्हें जिन्होंने बस देखा हैं परिंदो को फड़फड़ाते पिंजरो में वो जाने की ये मासूम उड़ जो पाता तो क्या इंद्रधनुष लपेट न लाता ?
रिश्ते ठिठुर गए हैं आकर जैसे एक सर्द कमरे में जहाँ वक़्त मौसम तो बदल रहा है पर दूरियां पिघलती नहीं