Posts

Showing posts from May, 2018
नहीं नहीं दर्शक दीर्घा में नहीं मुझे आवश्यक है तुम्हारा यहाँ होना इस जीवन के रंग मंच पर मेरे साथ, मेरे पास उत्सुक, व्यस्त , बेचैन और थिरकते कभी संग नहीं नहीं नहीं होने दे सकती मैं तुम्हे तालियों के गड़गड़ाहट में खोयी एक आवाज या कहा सुनी की एक फुसफुसाहट तुम्हे यहाँ डट कर खड़ा होना है मैदान पर मेरे साथ , मिलकर कंधे होकर एक जुट अभी , इसी वक़्त और सदैव
किसका प्यार? कैसा निवेदन? कैसी बेड़िया और किस बात का डर नहीं बाँध के रखना किसी को और ना ही बैठना अंधेरो में की टटोलना और माँगना पड़े साथ रौशनी कब आयी, टटोलकर हाथ सूरज स्वयं आता है ले प्रभात बर्षा स्वतः होती है प्रेम भी अब नहीं, तो न ही सही भय भटक जाने का कैसा आखिर कौन जानता है कौन सी राह सही या नहीं? आत्मा का अनुसरण और अभिवक्ति का दीप कर्मो की गति पैरो में बहन, फिर घर तो सब को पहुंच ही जाना है
सखी तुम भी? समझ बैठी की अब मैं व्यस्त हूँ की बस हंस हंस के मौसम  का बखान भर करुँगी ‘कह और कह’ हरेक लब्ज़ के इर्द गिर्द रखूंगी तू तो न कह वो मुझसे जो कहते सभी हैं तू तो जान ले कहानी जो मन में कही दबी है यु हर बार कहके ”बढ़िया ” क्यों धकेलती हो मुझको अपने आप से अंजाना क्यों बनाती हो मुझको ये है कौन सी बिमारी या कोई दौरा पड़ा है बढ़ती दूरियों से मेरा ह्रदय विचलित बड़ा है
चटक चटक और चनक चनक कर कांच की बरनी चलेगी कब तक साट साट कर जोड़ जाड़ कर कांच की बरनी चलेगी कब तक रंग पेंट सब पोत पात कर झूठ साँच अब बोल बाल कर सुख सुविधा को तोल ताल कर हर ख्वाहिश को कल पे टाल कर सपनो को बटुए से अब खंगाल कर कांच की बरनी कांच की बरनी आखिर कब तक?