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Showing posts from March, 2021
 अंधियारी कारी रतियाँ  तो तेरी भोर भी तू ही  नैनो की भीगी बतियाँ  मन का शोर भी तू ही  न हुआ है, न कोई होगा  जो तेरी राह बन जाए  ये डगर, ये सफर  कदम और मोड़ भी तू ही 

शब्द

 शब्द  उड़ रहे हैं  बह रहे है  हो रहे हैं तितर बितर  यहाँ वहां इधर उधर  कुछ कहे हुए कुछ सुने हुए  कुछ लिखे तो कुछ मिटे हुए  रख लूँ किसे  किसे जाने दूँ  और जो दस्तक दे रहा  उसे क्या आने दूँ?  कोई भागता है टोककर  कोई नापता है सोचकर  शब्द कोई है ठहरा हुआ  इस कान से बहरा हुआ  कोई पूछता है मेरी वजह  कोई देखता है बेवजह  शब्दो की जंजाल में  फंस गयी मायाजाल में  डूबूं अब यहाँ या उतरूं मैं  सोचती हूँ अब, सुधरूँ मैं  ये तो हैं सदा से बावले  इन्हे बाँध कर, क्यों रखूँ मैं  कोई शब्द बैठा सी रहा  हर घाव इस जज़्बात पे  बखिये उधेड़े और कई  वो शब्द, हर एक बात पे  कोई सींचता बन बागवा क्यारी डालिया हैं लद गयी  शब्द से दिल ही नहीं  अब निगाहें भी भर गयी 
 नहीं नहीं अब और नहीं  एक कदम भी और नहीं  फिर भी साथी हम चलते हैं  ख़्वाब इन्ही दिलो में पलते है   बेकाबू अपने हालात सही  टुकड़ो में ये जज़्बात सही  राह भले तेरी अंजानी है  मुश्किलें हैं परेशानी है   उठकर चलना तो होगा न?  मिलकर बढ़ना तो होगा न?  राह और कदम का रिश्ता है  हर चलने वाला, फरिश्ता है  हर चलने वाला, फरिश्ता है 

आओगे जब तुम साजना

 आओगे जब तुम साजना  चाय की प्याली आधी पड़ी, ठंढी हो रही है और मीरा न जाने किन खयालो में खोयी अभी भी मुस्कराये जा रही है. कानो में कोई धुन लगातार बजे जा रही है और होठो पर  हंसी थिरके जा रही है. भोर का सूरज आसमान में अठखेलियां करने को उचकने सा लगा है और प्रकृति उसके आगमन में सारे रंग न्योछावर किए जा रही है.  अच्छा तो क्या  कहा था उसने?  आओगे जब तुम साजना... अंगना फूल खिलेंगे?   अच्छा? मेरे न होने  से क्या फूल नहीं खिला था तुम्हारे आँगन में अर्सो से? फूल तो खिलते ही हैं मौसम के आने से हर साल.  मैं कोई हवा पानी और मिट्टी तो हूँ नहीं , बसंत तो बस ऐसे ही आता है और फूल लहलहा ही उठते हैं.  हाँ अब ये और बात है की कोई कोई मौसम बार बार नहीं आता. ऐसे भी कुछ मौसम होते हैं, जो बस एक बार आकर चले जाया करते हैं , उनमे फूल नहीं खिला करते. बस लम्बी घास पीछे छोड़ जाया करते हैं उन पटरियों के इर्द गिर्द जहाँ से कुछ तेज़ रफ़्तार से रेलगाड़ियां गुजरती रहती है बरसो बरसो तक.  और कभी कभी, उन्ही रेलगाड़ियों में बैठा कोई गुनगुना रहा होता है "ये दिल और उनको निगाहों के साये".  वो मौसम जा चुका है, वो घास सूख चुकी
 सच क्या है, क्या है झूठ  क्या रह गया, क्या गया लूट  कितनी कह गयी  कितनी रह गयी  कौन जाने ? तू जाने या मैं जानू  तू माने या मैं मानूँ