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Showing posts from January, 2018
এই যে তোমার মাথার ভিতরে কত গুলো জঞ্জাল কপালের লেখা আর হাত ধরে করা কেমন এই বিস্তার পারছি না আর পারবো না বলে বলে কেটে  যাচ্ছে জীবনের কারবার
पलकों की धार पे ही तो उत्सुक सपने रहते हैं खुली हुयी आँखों पे ये तान लंबी सोते हैं और पलकों के गिरते ही जैसे इनकी महफ़िल जमती है कैसे कैसे खेल तमाशे अनगिनत कही अनकही दिखती है कैसे ऐसे धरकर रूप सपने में सच स्वांग रचाते है कभी डर तो कभी यु ही कह हम सच से सच को छिपाते हैं आंख खुलते ही बहुरूपिये सारे चल देते हैं जाने कहाँ ठिठकी और भ्रांत निगाहे ताकती दीवारे बस यहाँ
कैसे तो बादलो में जैसे जैसे रौशनी थम सी गयी है पिघलते पिघलते जिंदगी फिर जम सी गयी है सर्द हवा कोई चुपचाप छू के बहे जाती है खामोश कुहासों में कहानी कोई कहे जाती है हैं रंग हैं आंखे पर है रौशनी नहीं सूरज की जोहे बाट रूह ऐसे ही जिए जाती है
বললাম তো আমি সব কিছু ছিঁড়ে ভেঙে ফেলে দিতে অযোগ্য আমি পারি না শেষ পর্যন্ত করি চেষ্টা ভেতরে সব সময় জানি, কোনো লাভ নেই আবার নতুন করে ফেলার আশা টী এক্কেবারে মিথ্যে কিন্তু আর যে কিছু পারি না এই টুকড়ো গুলো নিয়ে সারা দিন ঘর-ঘর খেলি