खुबसूरत ख्याल

ख्याल एक खुबसूरत सा, कल रात में आया था
पर रौशनी गुल थी , और न थी लेखनी हाथ में
याद कर कर के उस ख्याल को
खुद को सोने से रोका था, पर नींद आनी थी सो आके ही रही
फिर भी, किया प्रयास की, वो मेरा ख्याल
खो न जाए कहीं, सपनो की गलियों में
पर अनगिनत खेल खेलने वाला ये मन
न जाने दिखाता रहा मुझे सपने कैसे कैसे
सुबह आँख जो खुली मेरी, रौशनी ही रौशनी थी
सपनो की कुछ परछाईया भी तैर सी रही थी
पर जैसे धुप के खिलते ही, गुम हो जाती है ओस
धूमिल हो गई सारी परछाईया
और मेरा खुबसूरत ख्याल, उन्ही अंधेरो में खो गया
जहाँ जाने को कोई राह ही नहीं....

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