पकड़कर चढ़ी थी, उम्मीदों की बूंदों
जब बारिशे घनी थी खुशियों की
बैठ सपनो के बादलो पे
देखा उगते सूरज को
पल भर को ही था देखा
की इन्द्रधनुष ने उतारा
मुझे फिर से जमीं पर
गीली थी मिटटी, किचड़ो में सनी मैं
बस देखती रही ऊपर , सोचती रही
क्या पाया , क्या चाहा और क्या खोया ?

Comments

Popular posts from this blog

मर्यादा

प्रेम - तलाश ख़त्म

वट सावित्री