यथा योग्यं तथा करू



मत्समः पातकी नास्ती , पापघ्नी त्वत्समाँ नहीं
एवं ज्ञात्वा महादेवी , यथा योग्यं तथा करू

ये शब्द मन में कुछ जम से गए, पिछले सप्ताह दुर्गा सप्ताशी पढ़ते हुये. इन शब्दों को कहते हुए मैंने प्रत्येक दिन पुस्तक को बंद किया और हाथ जोडे. आँखों को मूँद कर मन में कुछ ऐसे ही विचार आय़े.

माँ, यदि यही सच है की तुम ही सारी इन्द्रियों में बसती हो और उनकी परिचालक हो तो मैंने इन्ही इन्द्रियों के वशीभूत हो जो भी कर्म किये, क्या वो तुम्हारी के क्षमा योग्य हैं? कभी अपनी जिह्वा से किसी को चोट पहुचाई तो कभी किसी को तुच्छ दृष्टि से देखा. कभी अपने मन, ह्रदय और मस्तिषक को सुख देने, जाने-अनजाने अपने आपको सर्वोत्तम स्थान पे रख औरो की अवहेलना की. अनजानी की तो बात जाने भी दू, पर जिस में खुद को दोषी पाती हूँ क्या उसके लिए तुमसे क्षमा प्राथना कर सकती हूँ? मान भी लूं की तुम ममता मई हो और मुझे क्षमा दे भी दो, क्या मैं खुद को क्षमा कर पाऊँगी?
फिर किस तरह मैं खुद को तुम्हारी प्रार्थना याचना के योग्य बनाऊं? चूँकि इस सब बातो का कोई उत्तर मुझे नहीं दीखता "यथा योगं तथा करू" !

इतना कहकर मैंने आरती की थाली ली और देवी का महिमागान कर इस साल देवी की उपासना कि.

Comments

pushkar_jha said…
teh kehbaak saar ee achchi je poora dokh mai par.. bahut neeman laagal apne ke vichar

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