इंतेज़ार
इंतेज़ार परिवर्तन का इंसान क्यू ना करे, जब प्रकृति भी करती है क्यू ज़ोर ज़बरदस्ती? लाओ परिवर्तन, करो बदलाव, अब नही तो कब क्या सूरज नही बाट जोहता है रात के ढल जाने की बूँद से भरे बादल, क्या तब तक नही रुके रहते जबतक ना मिले वो पर्वत, टकरा कर बिखर जाने को नदियाँ क्या बिन बात ही रास्ते मोड़ लेती हैं? या मंद मंद ही बहती है तबतक जबतक, वो बूंदे भर देती है दामन और तोड़ जाती हैं सारे बाँध बर्फ़ीले बादल रुके रहते हैं टकटकी लगाए, इस धरती पे तबतक जबतक, छू नही लेता तापमान शून्य को और मखमली बर्फ, सिहरकर गिरती है फिर क्या पल, और क्या युग क्या सदीया , क्या नयी रुत? इंतेज़ार ही हासिल है और वही तकदीर इंसानो को हो या नियम कुदरत