आजकल कुछ तो बदले हैं मौसम कही
क्यों गुनगुनाता सा हर पल रहता है मन
कोई मुस्कराहट खींची रहती है लब पर
होश खोया सा है, कोई अपनी ही धुन


ढूंढती रहती हैं आँखे और मेरी अंगुलियां
टटोलती है , हवा में , तुम्हारे निशान
खुश्बुओ को खोजती है, बंद करके आँखे
आजकल बोलती भी हूँ मैं, तुम्हारी ज़ुबान

कौन कहता है, समय भर देता है सारे घाव
किस सरहद की बात जाने करते हैं लोग
कितनी बच के चली, सम्हाला दामन सदा
फिर भी लग के रहा ,जाने कैसे तेरा ये रोग

सीमा नहीं वक़्त की अब कोई
न ही रही गांठ जिसको सुलझाते हम
अंतहीन और अनंत ये तुमसे रिश्ता मेरा
साँसों के संग बहे जाते से हम

Comments

dollyjha said…
This poem gave me a very pleasent feeling could not help but just smiled.

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