कही हर बात बॉटनी है
कही है खींचनी लकीरे
कही हैं अंजानी सी डोर
कही है बांधती ज़ंज़ीरे

कही बस रिश्ते चले आये है
चाहे भी अनचाहे भी
कही बस घाव रिसते हैं
दिखते भी, छुपाते भी

मन तो कठोर ही था
ये लिखता है कौन, क्या जाने
जो बुझे वो पहचाने
अनपढ़, ये भाषा क्या जाने

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