हांकते हैं




कुछ हाथ जुड़े
कुछ छूटे भी
कुछ मीत बने
कुछ रूठे भी
रिश्तों की व्यापारी में
वादों की आपा धापी में
बातो की कारीगरी में
चेहरे और उनके पीछे भी
कुछ सच्चे थे
कुछ झूठे भी
कौन बड़ा बना
कौन छोटा निकला
कितने हिसाब
क्यों शिकवा गिला
खुद गणित के रहे कच्चे
जब जब रिश्तों को हाट लगी
अपना सिक्का
खोटा निकला
खाली हाथ ,मसोस के मन
हर बार हम उन बाज़ारों से
वापस लौटे हैं आँगन में
पीछे बंद हुए दरवाजों से
कब समझेंगे वो कोई नहीं
जो दाम लगा , लगा बोली
धागे रेशम के बांटते हैं
हम तो यादो की तकियों पे
अब से रख कर सर
जी भर अब सपनो भर में
अपनों से कहानी हांकते हैं

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