झूठी
बातें तुम्हारी
पर नज़रे सच्ची
ज़बां जो जो छिपाती हैं
कहती है ये वही
कभी हंसी से छलक आता है
कभी बह गिरता है आँसुओ में
सच सब तेरा पिघलता है
आकर मेरे बाजुओं में
झूठ कहती हो सर हिलाकर
की कहाँ याद मुझे कुछ है
हुए अर्से इतने अब तो
भूल गयी मुझको वो रुत है
फिर वो लकीर सिकन की चेहरे पर
सारे राज़ खोलती है
आँख के कोने का भीगा काजल
हकीकत को बोलती है
कहती हो नहीं याद कब ऐसा तुमने कहा था
पर साफ़ बयां करती हो,उस शाम का रंग क्या था
कहती हो , हूँ आजाद और बेइन्तेहाँ मशरूफ
आँचल दबा दांत में, नज़रे चुराने का ढंग क्या था
अब बहुत हुआ ये सिलसिला , बस बंद करो तुम
दिखता है मुझे साफ़, जो कुछ कह सके न तुम
चलो इन झूठ से भागे और सच को गले लगा ले
बस एक तुम हो और मैं हूँ, दुनिया दुनिया के हवाले
Comments