जिंदगी मिली थी
, आरज़ू थी प्यार
उम्र्र भर
परोसकर
सजाएंगे , लम्हों की थालियों
पर
युँ तो
शौक नहीं था
कुछ, रसोईघर में
टंगे रहने का
पर,प्रेम का
स्वाद चखा था,
रिश्तों की प्यालियों
पर
रखती थी
डायरी, लिखती थी हर
एक नुस्खे
की
कभी ऐसे, कभी
वैसे, बनाउंगी चखाऊंगी
महक उठेगी मेरे
आँगन से ऐसी
मनमोहक
की भूले
हुए अपनों को
भी, घर का
रास्ता दिखाउंगी
पर लगता
है मैं भूल
गयी संग रखना
कुछ खास
पैदा
न कर सकी,
वही रूप रंग
वो एहसास
न
सीखा मैंने कैसे
नियमित रखते हैं
आंच
व्यर्थ ही
सखा मेरे ये
अनवरत अर्थहीन प्रयास
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