घोर कलयुग


की सीता देती है अभी भी परीक्षा
जब लौट आती है लंका से
रावण का कर संहार
अपने कोमल हुआ करते हाथो से
राम अब भी कहलाते हैं
मर्यादा पुरुषोत्तम
उठाते हैं चाहे कितने सवाल
पर हाँ
अब इन्हे किसी स्वयम्बर में
धनुष नहीं उठाना पड़ता
सीता को यु ही गले बाँध आते हैं जनक
क्युकी कहाँ कोई पिता है कहने को तैयार
की जनक हमें क्षमा करे
की हमने राम नहीं
घर घर में अब रावण पाल रखे है
राम के मुखौटे में
अब कहाँ वैसे रावण
जो हरण के पश्चात भी
वरन की आकांक्षा लिए
भाई के धोखे को जानकर भी
रणभूमि पे गिर पड़े
पता था रावण को,
ये राम कहाँ सीता को घर दे पाएगा
इसे तो पड़ी है,
अपने सिहांसन और धोबियो की
मर मिटा सब त्याग कर,
लेकिन फिर भी न दिला सका
सीता को अधिकार
अब सोचती हु
आखिर सतयुग ही कौन सा
कलियुग से बेहतर था?

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