हे शिव , मैं कैसे मान लूँ

की नाग तेरे मुझको डसेंगे

प्रिय मुझे तेरा बनते

क्या वो बस ऐसे चुपचाप रहेंगे?

नहीं कहेंगे की हम युगों से

करते हैं शीतल जिस कंठ को

उस गृह में कैसे सती

तेरे भुजा हार बनेंगे

डराएंगे  भगाएंगे मुझे

दिखाएंगे अपने तीखे दांत

जब जब शिव तेरे नयन

ध्यानमग्न रहेंगे

परंतु जब जब खुलेंगे

और मुझे देखेंगे शिवेश

तृप्त होगा ह्रदय

और कहाँ बचेंगे क्लेश

उस मस्तक का चाँद

शीतल मेरे कंधो में बैठेगा

सम्पूर्ण कैलाश इस

प्रेम की ऊष्मा से पिघलेगा

मैं नहीं होती भयभीत

सर्प से भष्म और भभूत से

जैसे शिव वैसी मैं

और  वैसे हु अनुभव अनूप से

निराकार निर्विकार

अभूतपूर्व और अभेद्य

है विशाल अंतहीन

भक्ति प्रेम, महादेव

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