कलकत्ता शहर
कलकत्ता शहर
एक अनूठा शहर , जो इश्क
की बुनियाद को
बुनियाद की
तरह सहेज कर
अपने दिल में,
सदियो जवान रह
सकता है.
, इसके आगे
कहाँ टिकेगा आगरे
का ताजमहल। एक मुर्दा
हुए मुहब्बत पर
आंसू बहाते आशिक
की आखिरी श्रधांजलि?
कोलकाता में मकबरे
नहीं बनते
क्योंकि इश्क़ मरता
ही कहाँ
है ? वो
तो बहता है शहर
की रगो में
बनकर हूगली का पानी
और लोग खुद
ही कश्तियाँ बनाकर
पार लग जाते हैं। जिनकी
नाव टूट भी
जाये वो
'ओ रे मांझी' को
आवाज लगा मस्त हो
गोते खा लेते
हैं इन लहरो
में. क्योंकि जानते
है सबकी
मंजिल गंगा
सागर ही
है. कही भटक भी
गए तो सुंदरवन
के जंगल
कौन से बुरे हैं?
रविन्द्र के
संगीत से लेकर
नज़रुल की गीति तक,सबके सब
सदियो से अब
तक ग्रसित है
इस प्रेम के
रोग से जो
परे है भौतिक आडम्बरो के
, जीवन मृत्यु के चक्करो
से और समय की
गति से. यहां जो
किसी ने कहानी
लिख डाली,
किसी पेड़ की
डाल पर या
मैदान की घास
पर, किसी पार्क
के बेंच पर
या ढहती इमारटो
की इट पर,
तो वही वजह
बन जाती है
उस इमारत के
ना गिरने की
और फिर वो
घास हर मौसम
मे लेह लहाती
रहती है. वो
पेड़ कभी नही
सुखता ना ही
वो पार्क की
बेंच नये रंग
से रंगने का
इंतेज़ार करती है.
ये तो भीगति
है हर बारिश
मे और सोख
लेती है हर
एक बूँद को
अपने दरारो मे.
कायम रहती है,
क्यूकी बिखर जाना
और मातम मानना
तो इसने सीखा
ही नही. काल
बैशाखी की ताल
पर नाचने वालो
को वक़्त के
थपेड़े क्या डराएँगे.
अब ऐसा भी नही की कोलकाता आँसू नही बहाता, नही रोता फफक कर औरढूंढता है एक कंधा जिसके सहारे मे वो भूल जाए उस लम्हे भर की उदासी को.
ढोल ताशो के शोर से सारा शहर रोता है हर साल, चीख चीख कर एक ही बार मे अपने सारे गम को एक प्रतिमा के साथ डुबो आता है उसी गंगा की गोदी मे जिसमे एक दिन हम सब को समा जाना है. दुर्गा पूजा, एक त्योहार नही , एक शृंगार , एक पागलपन, एक जुनून , एक रह्स्य और जीवन का मर्म. अब वो चाहे हाथो मे अग्नि लिए न्रित्यकरना हो या मंत्रो के साथ पुष्पांजलि, या हो वो ज़मीन पर बिना रखे विशालकाय प्रतिमा को लिए तट तक पहुचने की यूगो पुरानी दौड़ या हज़ारो की भीड़ मे ढूँढना उस एक का चेहरा या फिर घर का रास्ता, सिंदूर मे रंगा हुआ चेहरा या रंगो मे रंगा पूरा शरीर ...जीवन से किसी को प्रेम करना आता है तो इस शहर को लेकिन इसे जान पाना किसी बाहरवाले के बस की बात नही और ना ही मेरे शब्दो मे समर्थ्या है इन्हे पन्क्तिबध्ध कर पाने की.
अब ऐसा भी नही की कोलकाता आँसू नही बहाता, नही रोता फफक कर औरढूंढता है एक कंधा जिसके सहारे मे वो भूल जाए उस लम्हे भर की उदासी को.
ढोल ताशो के शोर से सारा शहर रोता है हर साल, चीख चीख कर एक ही बार मे अपने सारे गम को एक प्रतिमा के साथ डुबो आता है उसी गंगा की गोदी मे जिसमे एक दिन हम सब को समा जाना है. दुर्गा पूजा, एक त्योहार नही , एक शृंगार , एक पागलपन, एक जुनून , एक रह्स्य और जीवन का मर्म. अब वो चाहे हाथो मे अग्नि लिए न्रित्यकरना हो या मंत्रो के साथ पुष्पांजलि, या हो वो ज़मीन पर बिना रखे विशालकाय प्रतिमा को लिए तट तक पहुचने की यूगो पुरानी दौड़ या हज़ारो की भीड़ मे ढूँढना उस एक का चेहरा या फिर घर का रास्ता, सिंदूर मे रंगा हुआ चेहरा या रंगो मे रंगा पूरा शरीर ...जीवन से किसी को प्रेम करना आता है तो इस शहर को लेकिन इसे जान पाना किसी बाहरवाले के बस की बात नही और ना ही मेरे शब्दो मे समर्थ्या है इन्हे पन्क्तिबध्ध कर पाने की.
अपने उस शहर
और जन्मस्थली की
याद मे, जहाँ
सीखा भगवती
के साथ साथ
जीवन से प्रेम.
Comments