पगडंडिया
पगडंडिया
जाती है जो
घर को मेरे
कीचड़ से सनी
काँटों से भरी
तब पार कर
आये थे हम
यु कूद फाँद
, लेके छलांग
अब
बस देख पाते
हैं
उस पार दूधिया
चाँद
कर के बंद
आँखों को
उतरती नसों में
हैं
हवा जो बहके
आती है
कहानिया
सुनाती है
शहनाई तो कभी
ढोल
खोलती हँसी की
पोल
छलकती है प्यालो
से
पलकों की , सब
बेमोल
अब
ताकते है निराश
नयन
देते हैं विदा
, अब हम कहाँ
क्या पाएंगे
न जाने क्यों
आये थे
न जाने, कब जायेंगे
Comments