सासो की सांकल
चढ़ी रखी हैं
कालकोठरी
में तन की
दिन काट रहे
हैं
न झांकती है कोई
किरण
रोशनदानों
से
शीलन घुटन से
तनहायी बाँट रहे
हैं
उलझ पड़ते है
बदहवास हो मिज़ाज़
खुदबखुद
कोसते कभी, कभी
खुद को, डांट
रहे हैं
ठहरे से दायरे
में
कहाँ जायजा वक़्त का
आसुओं की धार
से
इंतज़ार
, माप रहे हैं
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