एक लंबी सर्द
रात
नम, ठिठुरती
रास्तो पे जमी
निगाहे
बन कर रह
गयी
मिशाल
अपने इश्क़ की
की अब कोई
सूरज
देहरी पे आता
नहीं
और चाँद
शर्मिंदा
बादलो तक से
झांकता नहीं
न गलती है
देह
न रूह
छोड़ती है दर
बेइंतहा
की कसम ली
थी
पर अब
इन्तेहाँ
हो गयी
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