क्या था

मेरा कसूर

या था बस

तेरा फ़तूर

कुछ भी

कर गुजरने का

और हमारा बस देखना

यूँ हक्के बक्के

आखिर कबतक

कोई झूठे ही

दिल बहलाये रखे

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ये शेर शायरी छोड़

झोंक चूल्हे में कलम

अल्फ़ाज़ काम देंगे

ये इश्क की नज़्म

जो सुलग रही हो बेवजह

वो आग खाक भर की

इसने चूल्हे जोड़े

कभी रौशनी की

रेंगती ये कागज़ों पे

साली जोंक ही तो हैं

रहे दिमाग में या कलम पे

खून चूसती भर हैं

नोच फेकू खरोच फेकू

सब बेहूदा जज़्बात

घूम फिर के अटक जाते है

एक नाम पे , हर बात

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