पलकों की धार पे ही तो
उत्सुक सपने रहते हैं
खुली हुयी आँखों पे
ये तान लंबी सोते हैं
और पलकों के गिरते ही
जैसे इनकी महफ़िल जमती है
कैसे कैसे खेल तमाशे
अनगिनत कही अनकही दिखती है
कैसे ऐसे धरकर रूप
सपने में सच स्वांग रचाते है
कभी डर तो कभी यु ही कह
हम सच से सच को छिपाते हैं
आंख खुलते ही बहुरूपिये
सारे चल देते हैं जाने कहाँ
ठिठकी और भ्रांत निगाहे
ताकती दीवारे बस यहाँ

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