अनु
चलो न छत पर चले.
अभी अभी तो आँगन में पैर ही रखा था की अनु ने आकर गुहार लगा दी.
नानी के घर आयी हूँ, दुर्गा पूजा की छुट्टी में. अब तक तो मैं कुढ़ ही रही थी माँ से. परसो स्कूल से आयी और माँ ने बताया की हम तीन घंटे बाद निकल रहे हैं. भला कोई दुर्गा पूजा में कोलकाता से बाहर कही जाता है क्या? इससे बड़ी बेवकूफी वाली की क्या बात होगी. लेकिन नहीं, माँ ने बोल दिया तो बस हो गया. मैंने कितना समझाया माँ को, अष्टमी में पुष्पांजलि कहाँ देंगे? माँ ,
मेरे स्कूल के पास का पंडाल कितना सुंदर बनेगा, हम कैसे देखेंगे? कहाँ घूमने जायेंगे? दोस्तों से मिलना भी नहीं होगा. माँ , माँ।
लेकिन नहीं.
माँ ने सामान तैयार ही रखा था और पापा ने टिकट। तो बस, हम सब रात की सियालदह - मुगलसराय से रवाना हो गए.
मेरे लिए ये सफर बड़ा कठिन होता था. ट्रैन तो ठीक, मैं बड़े आराम से कॉमिक्स पढ़ते पढ़ते निकल देती थी. लेकिन भागलपुर से दो घण्टे बस के रस्ते में मुझे ऐसा लगता , की ये बस रुके तो मैं बचूं. माँ को मेरे इस तकलीफ का एहसास था, तभी तो कभी चूरन की गोली तो कभी नारियल की फांक बढ़ा देती मुझे. मुझे तो ट्रेन से बस में चढ़ने से पहले ही १ उलटी न आने की दवा भी दे देती थी. लेकिन, कुछ ख़ास फायदा नहीं होता. याद है अभी भी, माँ की वो हरी मेहँदी रंग की शाल जिसमे कश्मीरी काम था... मैंने कैसे बर्वाद किया था ऐसे ही एक सफर में.
न जाने क्यों और कैसे , उस शाल की गर्मी अबतक उंगलियों में
महसूस
होती
हैं . शायद इसलिए क्युकी , उसी शाल
में नाक गड़ाए तो मैं जैसे तैसे पहुचती थी नानी के घर . मान
एक घंटे बाद ही बोलने लगती , अब
आ गए . अब
बस …अगला स्टॉप ही
तो है.
उतरने के साथ जो शुकुन मिलता , की
बस . स्टॉप के
पास कोई न कोई खड़ा होता हमारे घर का , बिना
फ़ोन बिना तार पता नहीं कैसे खबर हो जाया करती थी भला . वही
पर दीखता था एक छोटा स्कूल , उसके
सामने
बहती थी एक
रेतीली
नदी. नदी क्या, बस उसका छाड़न और उसपर एक
छोटा सा पल . जिसे हम
शायद
उड़ कर ही पार हो जाया करते थे . हाँ , सच ही
में , मुझे याद
नहीं
की हम कभी चला करते थे वहां . बस , उड़ा करते
थे . पंख लग
जाया
करते
थे शायद .
खजूर
का जाना पहचाना पेड़ , कुआं
और फिर जरा और आगे ही
मेरी नानी का
बड़ा सा आँगन . एक कौतुहल से भागे भागे हम अंदर आ जाते थे, की देखे तो सही और कौन कौन आया हुआ है?
आँगन की तुलसी , गेंदा और
अमरुद ….जस के तस हुआ
करते
थे . और उस आँगन
की सबसे अनोखी और प्यारी सी
रौनक , मेरी अनु . मेरी दोस्त, सखी और
मेरी हमराज़.
अरे.
चलो न …छत पे चलते
हैं .
हाँ …हाँ चलो
न . मैं भी न जाने क्या
सब सोचने बैठ गयी .
कहते
कहते , सरे दर्द
न जाने कहाँ काफूर हो जाते थे और हमारी छलांगे फिर पंख पेहेन उड़ने लग जाया करती थी .
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