परम्पराये,
कैसे हिस्सा बन जाया करती है
हमारे होने न होने का.
जैसे लहू में घुल कर
बहने लगती  धमनियो में
और धड़काने लगती है ह्रदय।
बेड़िया नहीं
बल्कि आजाद करने की अनुमति देती हैं
 भावनाओ को.
खुल कर जी लेने के
कायदे  सिखाती हैं
कभी कभी
और अपने पहचान से हमको मिलती है,
हमारी परम्पराये।

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