आखिरकार मैंने लकीरों के आगे घुटने टेक दिए और अपनी सरहदें बना ली. कितनी बार आख़िर मेरे बचपन दोस्त, पडोसी और घरवाले तक मुझे समझाते रहेंगे की "तुम क्या जानो, तुम यहाँ नहीं रहती". हाँ, अब मेरा देश यही है.
मीरा की छाती धौंकनी सी चल रही हैं, टांगो के बीच है फंसा एक यन्त्र और स्क्रीन पर नजरे टिकाये नर्स. जिसका डर है, वही बात है. मीरा की ही धड़कनो की एक प्रतध्वनि से कमरा गूँज उठा है. बधाई हो , बिलकुल नार्मल और हैल्थी प्रेगनेंसी है धड़कने और तेज़, गर्दन टेढ़ी कर स्क्रीन पर देखती है. एक काला धब्बा छोटा बड़ा हो रहा है , कुछ अंक इर्द गिर्द डूब उभर रहे हैं। कौन है ये ? इसको जीवन कहूँ या नहीं ? ह्रदय विचलित है और आंखे भर भर उलझ रही है। नर्स चुपचाप अपना काम कर रही है , उसकी तो दिनचर्या है। २ घंटे के बाद मीरा का नम्बर आया था , उसके पहले न जाने कितने और शरीर और कितनी और धड़कनो की चित्र आंक चुकी है आज ये मशीन. किर्र किर्र की आवाज और मीरा के हाथ में एक तस्वीर थमा देती है. मीरा अनायास उसे ले लेती है. अब आप चेंज कर लीजिये और डॉक्टर से मिल लीजिये। मशीन अब नहीं है टांगी के बीच लेकिन और भी बहुत कुछ तो है ? क्या करूँ ? कैसे कहूँ ? उसने तो कह ही दिया था, उसी दिन. " जाओ देख लो, जो करना है. " इको होती रहती हो वो ठंढी आवाज और उसका किया एक फैसला मीरा के ज़ेहन में.. " मुझे ये प्रेगनेंसी टर
वट सावित्री वैसे तो सावित्री और सत्यवान की कहानी सबको पता ही है , लेकिन किरण सोच रही थी की आजकल जब प्राण की रक्षा के लिए डॉक्टर हॉस्पिटल और साइंस है , क्यों करती है औरतें एक पेड़ के नीचे प्रार्थना. ऊपर से अमेरिका में तो इतनी गर्मी भी नहीं पड़ती इन दिनों में, की पति को पंखा झूला के कुछ ठंढक देना कोई काम की चीज़ हो. और उपवास में सज धज कर दस और औरतों के साथ , क्यों? मेमोरी के पन्ने पलटे तो देखा, भी मैं उनमे से एक थी तो जवाब तो उसके पास भी होना चाहिए, तो उनमे से कुछ ऐसे कह डाले किरण ने १. मैंने अपनी माँ को देखा था, तो बस उन संस्कारो को जीवित रखना था. आखिर एक दिन हम औरते अपनी माँ जैसी ही तो बन जाती है? नहीं? २. हम औरते प्यार तो बहुत करती है लेकिन जब शब्दों की बात हो , कंजूसी कर जाती है. ऐसे में वटसावित्री और करवा चौथ जैसे मौके बहाने बन जाते है. एक दिन , सारा दिन मैं सिर्फ तुम्हारे लम्बी उम्र और स्वस्थ्य की कामना करुँगी, समय निकाल कर सवारूंगी श्रृंगार करुँगी , की तुम्हारी आँखों में वो प्रेम और कौतुहल देखूं जो शादी के मंडप पर देखा था। ३. और ऐसे में मैं मेरी उन सखी सहेलियों को अपने संग
कभी रूह से और कभी देह से तुम बुला लेना और बता देना की प्रेम है कभी रूठकर और कभी बहल कर सता लेना और हंसा देना की प्रेम है कभी पास रहकर कभी दूर जा कर दिखा देना और देख लेना की प्रेम है हूँ जिन्दा की मुर्दा कौन कहे देखकर बस जान लेना की सांस है तो प्रेम है
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