जब से जन्म होता है, तभी से शुरू हो जाती है मृत्यु की प्रतीक्षा भी और इस अंतराल में जो समय हमारे हाथो में होता है वही कहलाता है जीवन। 
मनुष्य को और कई प्राणियों की तुलना में, कई सारे अतिरिक्त सुविधाएं उपलब्ध है। एक तो बुद्धि, दूसरा अंगूठा और तीसरा , मजह वक़्त। 
सोचते सोचते नेहा की आँख लग जाती है। नींद है ये या सिरिंज से निरंतर धमनियों में टपकती औषदि का असर, कौन जाने।
नेहा जानती है की अब मृत्यु ज्यादा दूर नहीं। जीवन का बड़ा हिस्सा इसने मृत्यु की अपेक्षा में ही बिताया है। कभी कुछ तो कभी कुछ। अपनी जड़ो से उजड़ कर, दूर देश में बस गयी थी छोटी सी उम्र में। सामाजिक तौर तरीके से बिवाह के बंधन में , वैसे ही जैसा अपेक्षित था। 
बहुत कुछ वैसा हुआ जैसे सोचा था, लेकिन सबकुछ कहाँ होता है। इसलिए नहीं की इंसान अफ़सोस करे, इसलिए नहीं होता ताकि मनुष्य नए पथ प्रसस्त कर सके। जरा चौंके अनअपेक्षित से और बहता रहे यु ही, जन्म से मृत्यु के प्रवाह में। 

नेहा को अपने हाथो में कुछ गर्मी महसूस होती है और एक परिचित सा सम्बोधन कुछ चौंका सा देता है।

नेह ?

नेहा को कुछ ध्यान नहीं आ रहा की जगह कौन सी है या समय क्या हो रहा है । खिड़कियों से अभी भी तेज़ रौशनी सफ़ेद पर्दो को छलनी करती आ रही है। इस ठंढे कमरे में , गुनगुनी सी धूप ने अनायास ही एक सुखद अनुभूति भर दी है। 
कही और कोई नहीं। आंखे मिचमिचाती है और खोलती है पर हाथो की गर्मी से आगे कुछ देख नहीं पाती। 

चश्मा? कहाँ है मेरा चश्मा ?

लेकिन जर्जर देह कुछ ज्यादा हिल नहीं पाती और नेहा निढाल होकर, उन हथेलिओं की गर्माहट को मुट्ठी में भींचे फिर से आंखे बंद कर लेती है।

उसके पीछे रखे मशीन के मॉनिटर पर एक सीधी लकीर अनवरत सी  चली जा रही है। 

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