आए तो थे हम
पर जरा देर हो गयी थी
सूरज जा चुका था नभ से
जरा सी लालिमा टंगी थी
बस
बिछ गयी थी पत्तले
सभी भूखे बैठ गए थे कतार में
जिन बाल्टी में मुझे
समेटनी थी लालिमा
और रंगनी थी चांदनी
उसमे भरा जा चुका था गोश्त
तो बस, देखती रही
तुम्हे ढलता
और परोसती रही मांस
इन नरभक्षियों को
जिनको बस पेट भरना है
पर ये रात , बड़ी लम्बी रात
जानती हूँ
तुम अब भी चाँद बनकर
जरा सी रौशनी फेक रहे हो
ज़रा सी उम्मीद
ज़रा  ठंढ
भेज रहे हो
पर काफी नहीं शायद
अब भोर शायद
काठ की सैया के
ज्वलित होने के
बाद ही आएगी। ..

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