आकाश और धरा

मिलिए धरा से, जैसा नाम वैसे ही मिटटी में बसती है इसकी सीरत। 
स्कूल से आते ही पहले अपने बस्ते से कापियां निकलना और कक्षा में दिए गए  कामों को खत्म करना. न तो खाने की सुध न खेलने की. 
और सब कुछ निपटलेने के बाद , धूप हो या बारिश बैठ जाना अपने बागान की क्यारियों पर. घंटो , अनवरत. 
कभी चुपचाप तो कभी शब्दों में निरंतर बात  करती है ये अपने पेड़ पौधों से. सभी के अलग अलग नाम हैं. अलग अलग व्यवहार और विचार भी हैं. ऐसा धरा का सोचना है. जैसे ये सेम की लत. ये बड़ी चंचल सी है, हर कोने से झांकती इसकी लते बढ़ी चली जा रही है और अब तो बालकनी से निचे पडोसी के ही घर पहुंच जाएँगी लगता है. ये बात सोचकर ही धरा अपने में ही हसने  लग जाती है और इस बात को जांचने के लिए अब तो वो बालकनी की रेलिंग से निचे देखने की कोशिश  कर रही है. माँ की नजर पड़ जाती है, जो की अभी बरनियो में अचार को धूप लगाने बाहर आयी थी. धरा की छोटी से देह अबतक आधी से ज्यादा रेलिंग के दूसरे तरफ है. 
उफ़ ये लड़की. 
"क्या कूद ही जाओगी अब?"

चौंककर धरा वापस ईट के क्यारी पर बैठ जाती है. मन ही मन सोचती है, कही सच में गिर जाती तो? क्या होता फिर? क्या वो भी कागज के पैराशूट जैसे लहराती हुयी सड़क के बिच गिरती? ठीक वैसे ही जैसे वो पैराशूट गिरते हैं जिन्हे वो और उसका भाई बनाते रहते है? 
अब तो घर में रखे सारे कागज़ भी ख़तम हो गए है, नए बनाने के लिए कही से तो  पुराने अखबारों का इंतज़ार करना पड़ेगा. 

धरा  का एक जुड़वाँ भाई है, आकाश . लेकिन उससे बिलकुल अलग. रोज़ साथ में स्कूल जाना और आना , लेकिन हर रोज़ धरा की पचास धमकियों के बाद ही उसका बस्ता उठता है और पैर भी. न तो उसे किसी सब्जेक्ट में खास  इंटरेस्ट है , न ही धरा के पेड़ पौधों में. हाँ, लेकिन लगभग सारा वक़्त दोनों साथ ही होते हैं और आकाश चुपचाप धरा की चुप्पी भी सुनता है और कभी कभी अनवरत होने वाली अटपटी से बाते भी. अक्सर  शाम में दोनों  पन्ने फाड़कर कभी मकान के नीचे गिराते है तो कभी बड़े भाई बहनो के खेलो में 'दूध - भात " का रोल अदा करते हैं. 

आज आकाश स्कूल से आकर खाने के बाद सो गया  है और धरा के लिए इन पौधों के अलावा कुछ खास काम नहीं. वो कभी स्कूल से आकर सोती नहीं. एकदिन जब उसकी आँख   लग गई थी तो उसने उठने के बाद आस्मां का रंग गहरा नीला और गुलाबी देखा था और सोचा था की सुबह हो गयी क्या? और यह बात उसे भयभीत कर गयी थी की उसने एक शाम और रात को खो तो नहीं दिया. ऐसा कुछ हुआ नहीं था, लेकिन तबसे वो कभी दोपहर में सो ही नहीं पाती. आकाश  का मन इन सब भयों से रिक्त है , उसे तो बस ये बात समझ नहीं आती की धरा उससे ज्यादा नंबर कैसे ले आती है. वैसे  उस सोच में भी ज्यादा समय नष्ट नहीं करता क्युकी भाई है और बहन को स्पर्धा नहीं , जिम्मेदारी और साथी जैसे ही समझता है. खासकर स्कूल से आते जाते.... परसो की बात है ,दोनों  लगभग स्कूल पहुंच गए थे , धरा कुछ कदम आगे चल रही थी. साइकिल से गुजरते एक आदमी ने न जाने क्या कहा क्या किया  , आकाश ने न देखा न सुना पर धरा जोर चिल्लाई और लगभग रो पड़ी थी. उसे चुप कराते कराते आकाश भी स्कूल पंहुचा था. 
इसीलिए आजकल वो उसे हँसाने की कुछ न कुछ तरकीबे करता है और सीधी सड़क से न जा कर , किनारो के जंगलो से जाता है. दोनों रस्ते में बाते करते जाते हैं, की ये एक बोटैनिकल गार्डन ही  तो है. पापा कहते रहते है, पर ले नहीं गए कभी. 


सोचते सोचते धरा की नजर पड़ती है वापस उस सेम की लत पर लगे फूल पर. अरे, ये तो कल नहीं था. अरे वाह , ये तो अपराजिता के फूलो को टक्कर दे रहा है. 

आकाश ! आकाश! देखो न सेम में फूल आ गए. अरे उठो तो , चलो देखो. 

लगभग बिस्तर से घसीटते हुए धरा आकाश को छत पर ले पहुँचती है और न जाने कहा से अनगिनत चिडियो का झुण्ड भी आस्मां में कोलाहल करता हुआ उस समय घर को लौट रहा होता है. दोनों  टकटकी लगाए देर तक  आस्मां को गुलाबी और गहरा नीला होते देखते हैं. चिडियो के झुण्ड का एक ख़ास  दिशा में जाने का कारन भी सोचते हैं. और अनायास ही, उनकी नजर जा पड़ती है उन चिडियो के झुंड से ऊपर उड़ते लौह पक्षी पर... उसका शोर कर्णभेदी सा जान पड़ता है. दोनों अपने कान बंद कर सोचते हैं, कौन से लोग बैठे होंगे भला इसमें? कहाँ जाता होगा ये जहाज, हमें क्या? हमें कौन सा कही जाना है. 

उनके मासूम हृदय ने भविष्य की परिकल्पना कहाँ की थी, की एक दिन ऐसा ही एक लौह यान लेकर जायेगा धरा को अपनी मिटटी से  दूर कही और. न जाने वहां वो कभी सेम और अपराजिता की लत बो पायेगी या नहीं, कौन जाने. 

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