बिन मौसम की बारिश ने आज तड़के ही जैसे सारी धरती को सिक्त कर दिया था. कॉफी के कप को हाथ में लिए नीरा आंखे बंद किये जैसे ठिठक सी गयी. जैसे झूम के बुँदे गिरी थी, लगता है उसी उत्साह से सूरज उन्हें सुखाने को चमक उठा है. पैरो के नीचे भींगी मिट्टी और माथे को चूमती सुनहरी किरणे , क्या प्रकृति का यह आशीष काफी नहीं? क्या इतना काफी नहीं? आखिर और चाहिए क्या तुझे?
नीरा नहीं जानती क्यों लेकिन बुँदे उसके आँखों से भी झरने सी लगती है. वो वही , वैसे ही रुक जाती है. शायद इस उम्मीद से की धूप इन बूंदो को भी सुखा ले. पर उसके नैनों में तो जैसे आज नलके लगे हैं.
काफी शॉप से और लोग बाहर आ रहे हैं, नीरा चुपचाप कार में बैठती है और अनमनी सी घर को चल देती है.
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