आकाश तो कब से इस चुप्पी को तोड़ने में लगा था.
जब जब वो आवारा बादल गुजरता था, कुछ बूंदो से सींच जाता था उत्सुक पर चुप चाप सी धरा पर. 
धरा नहीं जान पाती की वो इस बेमौसम बारिश का इंतज़ार सदियों से कर रही थी. ऐसे ही तो बीज़ पनपा करते  हैं,फूल खिलते  हैं,बाग़ सजते हैं और उनपे झूले लगते हैं . वही झूले, सफ़ेद चादरों वाले जिनमे हर बर्फ पिघल जाया करती है फिर ये कौन सी चुप्पी है जो न टूटेगी. 
लेकिन,धरा की नियति इंतज़ार है बस. बरसेगा तो बादल ही और तब बरसेगा जब बादल का जी भर आएगा. 

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