धरा आँख मूँद  कर पसरी हुयी है बस यु ही।  

किसी गहन चिंतन में शायद . तारे टिमटिमा रहे हैं जैसे कोई भी और रात में टिमटिमाया करते हैं. बस चाँद नदारत है. इन बातो से कुछ फर्क नहीं पड़ता उसको. उसकी पीठ, अभी अभी हुयी बारिश में  भीगी हुयी घास से सिंच  रही है और पांव की उंगलिया जैसे ठंढी में बर्फ  की सिल्लियो से जमे जा रहे हैं. फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। 
वो तो आंखे मूंदे बस मुस्कराये जा रही है.  क्या जाने कौन सी दुनिया में रहती है ये?
व्योम आस पास कहीं भी नहीं , कैसे हो ? रात है , चाँद भी नहीं।  ऐसे में कुछ दिखता है भला? बस झींगुरो की आवाजें  जुगनुओं की चहल पहल है की पता चलता है की यही है वो मायावी सी दुनिया. 
व्योम कही अनंत सा खामोश विलीन  होगा,किसी  अंतहीन में।  कौन जाने? 

अरी ओ , दीवानी। कुछ पता भी है तुम्हे की कहाँ हो और क्यों हो? कौन लेकर आया तुम्हे यहाँ और ऐसे छोड़ गया ?

खिलखिला कर हंस पड़ती है धरा. और उसके हॅसते ही जैसे रात रानी की एक एक कली खिल उठती  है इस वीरानी रात में. और महक उठता है इस बाग़ का कोना कोना. 

कौन कहता है की कोई लाया  मुझे? क्या मेरे  पैरों की गति अभी ख़तम हो गयी ? खुद आयी हूँ वो भी जैसे हवा पे सवार होकर और कौन  चला गया मुझे छोड़कर ? छोड़कर तो वो जाते है जिन्हे बाँधा गया हो. मैं नहीं बाँध कर रखती किसी को.

अच्छा? तो ये सारे के सारे  वृक्ष जिन्हे इच्छा - अनिच्छा से सींचे जा रही हो बंधे नहीं क्या तुमसे ? 

अब धरा के पैरो की गति देखने वाली है. बिना किसी घुंघरूं के और ढोल की थाप के , ताल में थिरकती हुयी धरा के चेहरे का तेज़ किसी की आंखे चुंधिया दे.
और तभी  जैसे पौ फट पड़ती है और मद्धम से भोर की प्रभा में दिखता है, धरा के ओर से लेकर छोर तक फैला व्योम. सदैव , स्थिर और शांत. कौतुहल विहीन बस अपने आँगन के द्वार को खोल अगुवाई करता है उन पंछियो का जिन्हे बस उड़ते जाना है. 

धरा बांहे फैलाये अपने चेहरे पे फैली मुस्कान को समेटे बस देखती रह जाती है. कुछ प्रेम से सनी और कुछ गर्व से भरी।  
क्यों  न हो, सारा का सारा उसी का तो है. 

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