आस्मां में तारों की लड़िया एक के बाद एक नए आकार लेती जा रही है, और चाँद अनमना सा बादलों को आते जाते देख रहा है. कभी उनमें छिपता है कभी बाहर, अपनी मर्ज़ी से नहीं. बादलों की करष्तानी से.
धरा और व्योम घास की चादरों पे यु ही लेटे हैं, जैसे कोई टूटी शाख़.

धरा -  बस इतना पता है की  तुम हो.
कहते हुए वो और कस कर जकड़ लेती है अपनी उंगलियां व्योम की उंगलियों से. व्योम पलट कर देखता भी नहीं , शायद कालपुरुष के पुरे आकार में आने से कुछ सहम गया है.

धरा जानती है. वो सबकुछ जानती है , वो देख रही है बादलों के रंगों का गहरा होते जाना धीरे धीरे। उनका उमड़ना घुमड़ना और फिर एक बूँद.

इस ठंढी रात में , इस बेवजह की बारिश के ख्याल से ही धरा थोड़ा काँप जाती है. लेकिन उससे कहीं ज्यादा डरा जाता है व्योम का छूटता हुआ हाथ. कैसे ? कैसे पकड़ के रख लूँ बस थोड़े देर और. क्या हुआ जो कुछ बिजलियाँ चौंध जाएगी? क्या हुआ जो एकबार भींग जाओगे?

सुन भी रहे हो? क्या पूछ रही हूँ? शायद। ..

बिजलियाँ
बारिशे बुँदे
पियोगे मेरे
होठ से, होठ पे

कभी तो लब खुलेंगे?
या नहीं
क्यों जी?




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