धरा ज़रा सी खो गयी है , क्युकी व्योम भी अब अपने अथाह में विलीन हो गया है. 

उसका तो कभी भी  कोई अदि या अंत नहीं था तो वैसे ही वो कभी किसी डोर से नहीं बंधा था।  वो शायद छूट चुका है और उड़ गया है कही किसी हीलियम के गुब्बारे की तरह. 

धरा कुछ दूर , कुछ देर तक उसके आकाशी रंग को मध्धम होते देखती गयी. पहले बेचैनी में और फिर बेबसी में. अब कुछ नहीं, फिर भी  कहीं न कही कुछ चुभता सा तो है अभी भी. वो भी चला जायेगा, बस वक़्त का साथ होना चाहिए. 

धरा के पास यु छूट जाने की कोई गुंजाइश नहीं है. उसे तो टिक के रहना है न. वो अपने सीने में कितने ही पेड़ो की अर्सो से जड़ें गाड़े जो बैठी है. व्यथा , ठोकर, चोट ये सब धरा को चुपचाप सहते रहने की आदत तो नहीं, पर फिलहाल जरूरत है. तभी तो जमीन और उनपर पड़े घाव हमेशा हरे रहते हैं, वरना सब बंजर न हो जायेगा। 
लेकिन क्या करे धरा, कब तक उस गुब्बारे के छूट जाने का अफ़सोस करे? कबतक अपने ही घास पर लेटी ढूंढा करे उन नजरो को , जिसके निहार लेने से उसके  तारों में भी कुछ छेड़ छाड़ हो जाया करती थी. अब तो जैसे हर सितार की धुनें मंद हैं. बेवजह सी सड़के हैं और बेकार उनपर लुढ़कते से जाने की जरुरत. 
कभी कभी धरा का जी करता है , इतना चीखे इतना चिल्लाये की बस फट पड़े.इन दरारों से उसका दर्द रिस रिस कर टपके और फिर ज्वालामुखी की तरह बह निकले। जला डाले वो सब जो उसके राह में आये।  अब तो न कहीं कोई बादल  है,न कही कोई बून्द भर बारिश जो इस आग के बुझ जाने की उम्मीद तक बने. 
यु ही सुलगते जाना और बहते जाना किसी अंतहीन की ओर ही अब शायद नियति है. या सदा से रही है ?

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