धरा अभी अभी घर लौटी है , काम होता है सारा दिन बाहर। पर कोई थकन नहीं है आज. कैसे हो , रस्ते भर बारिशो में ड्राइव किया है आज. बड़ी ट्रैफिक थी, लेकिन उसे जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ता. एकबार बारिश क्या हुयी, घुल सी जाती है उसकी आत्मा जैसे. और फिर कहाँ कहाँ बहता है उसका मन, वो तो वही जाने. छतरी तो कभी नहीं भाई उसको.
बालो में अभी तक है हज़ारो बूंदो के मोतियाँ जड़े है, जब वो चाभी घुमाकर ताले को खोलती है. कुछ पल और ठिठक कर २-४ बून्द और गिरने देती है माथे पर. आंखे बंद करके।

व्योम खामोश कांच  की खिड़की से लगा न जाने क्या गिन रहा है, बादल बुँदे या अपनी धड़कने. भगवान जाने.

क्या करते हो ऐसी बारिशों वाली शामों में? ख़ास कर जब शाम ढल जाये और हलकी सी अंधेरो की चादर ओढ़ कर बैठ जाया करती है धरा.

कुछ नहीं? मैं क्यों करून कुछ?

फिर भी , कुछ तो?

शायद बस देखा किया करता हूँ , बूंदो को गिरते झड़ते।

क्यों देखते हो बस? कभी बस ऐसे ही भीग जाया करो.

किया है वो भी, अब नहीं करता.

क्यों नहीं करते?

बस नहीं करता तो नहीं करता. जबरदस्ती थोड़े है कोई.

अनमनी सी धरा फिर केटली में चाय डाल कर उसके उबलने का इंतज़ार करने लगती है. बस इंतज़ार ही तो करती है वो, नियति ही है शायद.

केटली से थोड़े देर में धुआं भी उठता है और चाय अपने गहरे से रंग में धीरे धीरे प्याली में उतरती है. प्याली से उठती भाप में अपना चेहरा सेकती  है धरा थोड़े देर. साँसों में धीरे धीरे महसूस करती है पहाड़ियों में उगने वाले इस रूहानी पत्तो की गंध.

और वैसे ही बारिशे वहां भी तो होती होंगी न ? जैसे यहाँ  हो रही है?




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