प्रिय
चाह जो है तुमको
मैं हाथो से अपने
वो उबटन लगाऊं
बदन पे तुम्हारे
हल्दी में जिसके
तन ये मन, मेरा रंगा है
और जब मैं रंगूंगी
उंगली से अपने
प्रेम विलीन हो
बंद करके पलके
खोलकर आंखे, तुम देखोगे
और कहोगे
नहीं
ये तो वो रंग नहीं है
क्युकी उबटन , हे प्रिय
मेरे प्रेम का, मेरे शरीर पर
दमकता है ऐसा
कुंदन सोने सा
जलता जो है
दिवस रात्रि, प्रेम प्रेम में
भीग भीग , जलता है
तुम जले हो क्या कभी, इतना ?
तो फिर? कैसे?
जाओ
नहीं लगाती मैं और
चाह जो है तुमको
मैं हाथो से अपने
वो उबटन लगाऊं
बदन पे तुम्हारे
हल्दी में जिसके
तन ये मन, मेरा रंगा है
और जब मैं रंगूंगी
उंगली से अपने
प्रेम विलीन हो
बंद करके पलके
खोलकर आंखे, तुम देखोगे
और कहोगे
नहीं
ये तो वो रंग नहीं है
क्युकी उबटन , हे प्रिय
मेरे प्रेम का, मेरे शरीर पर
दमकता है ऐसा
कुंदन सोने सा
जलता जो है
दिवस रात्रि, प्रेम प्रेम में
भीग भीग , जलता है
तुम जले हो क्या कभी, इतना ?
तो फिर? कैसे?
जाओ
नहीं लगाती मैं और
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