सुबह हो गयी क्या? उनींदी सी , राधा पूछती है. पर कोई जवाब नहीं आता. कुहनियां उठाकर देखती है, अयान गहरी नींद में हैं.
राधा आंखे बंद कर लेती है, कुछ घड़ी के लिए.
कैसा होगा जमुना में उतरता इस उगते सूरज का प्रतिबिम्ब? देखा तो है कई बार. ऐसे ही उनीदी आँखों से, उसकी आँखों में. कई बार. ऐसे जैसे कह रहा हो, राई जागो गो ..
जाऊं?
कहाँ जा रही हो ?
राधा सुनती है, आंचल को अपने सर पर थोड़ा और खींच कर पलटती है.
पानी...लाना होगा न. अभी चली जाऊं? या।
अयान जा चुका है.
राधा ठिठक कर सोचती है थोड़े देर. फिर न जाने किस ग्लानि में धम्म से वही बैठ जाती है. क्या करूँ ? कितने दिन हो गए , उस रस्ते की मिट्टी इन पैरों से नहीं लगी. सोचते सोचते उंगलियां अपने आप उसके आलता लगे पैरों पे रेंगने लगती है. कैसे बर्फ़ की सिल्लियां कहा करता था इन उंगलियों को.
आंखे भर आती है, आंचल माथे से और नीचे सरक आता है। हाथ ख़ुद ब ख़ुद खाली मटकी की ओर.
जैसे किसी धुन में हो, पैर खुद रास्तो को जानते है. ये बृन्दावन की सड़क नहीं पर फर्क होता है क्या? सब एक ही होते हैं न? बस चलने वाले बदल जाते हैं.
कब और कैसे राधा घाट तक जाती है , कब पानी मटकी में भर आती है और पैर वापसी को हो लेते हैं, किसे पता. शरीर चलता है, मन भटकता है और आत्मा स्थिर. ऐसा ही कुछ सुना था कभी? कर्म की गति जब जीवन की गति से मेल खा जाए तो, तो? कुछ याद नहीं आता? भूलने लगी है राधा बहुत सारी बातें।
बहुत बहुत कुछ, परसो ही भूल गयी थी दूध को उबालते उबालते। ... धुआं हो रहा था पर सामने ही बैठे राधा न जाने कहाँ खो गयी थी.
पायल के घुंघरू क्यों निकाल रखे हैं?
राधा को आभाष होता है, घर आ गया.
क्यूँ निकाल रखे हैं?
इसबार जरा जोर से पूछता है आयान.
हाँ? वो? गिर गए शायद..
या इसलिए निकाल दिए की तुम्हारे आने जाने की आहट भी न हो?
कहते हुए राधा की मेहँदी लगी हथेलियों पर घुँघरूओं का गुच्छा रखकर, उंगलिया बंद करता है.
राधा मुठ्ठी कसे अपने कमरे में ही अपने कदमों को गिन गिन कर प्रवेश करती है. कही किसी कुरुक्षेत्र में कोई जानी पहचानी आवाज में कहता है, कर्म कर... फल की कामना नहीं.
राधा आंखे बंद कर लेती है, कुछ घड़ी के लिए.
कैसा होगा जमुना में उतरता इस उगते सूरज का प्रतिबिम्ब? देखा तो है कई बार. ऐसे ही उनीदी आँखों से, उसकी आँखों में. कई बार. ऐसे जैसे कह रहा हो, राई जागो गो ..
जाऊं?
कहाँ जा रही हो ?
राधा सुनती है, आंचल को अपने सर पर थोड़ा और खींच कर पलटती है.
पानी...लाना होगा न. अभी चली जाऊं? या।
अयान जा चुका है.
राधा ठिठक कर सोचती है थोड़े देर. फिर न जाने किस ग्लानि में धम्म से वही बैठ जाती है. क्या करूँ ? कितने दिन हो गए , उस रस्ते की मिट्टी इन पैरों से नहीं लगी. सोचते सोचते उंगलियां अपने आप उसके आलता लगे पैरों पे रेंगने लगती है. कैसे बर्फ़ की सिल्लियां कहा करता था इन उंगलियों को.
आंखे भर आती है, आंचल माथे से और नीचे सरक आता है। हाथ ख़ुद ब ख़ुद खाली मटकी की ओर.
जैसे किसी धुन में हो, पैर खुद रास्तो को जानते है. ये बृन्दावन की सड़क नहीं पर फर्क होता है क्या? सब एक ही होते हैं न? बस चलने वाले बदल जाते हैं.
कब और कैसे राधा घाट तक जाती है , कब पानी मटकी में भर आती है और पैर वापसी को हो लेते हैं, किसे पता. शरीर चलता है, मन भटकता है और आत्मा स्थिर. ऐसा ही कुछ सुना था कभी? कर्म की गति जब जीवन की गति से मेल खा जाए तो, तो? कुछ याद नहीं आता? भूलने लगी है राधा बहुत सारी बातें।
बहुत बहुत कुछ, परसो ही भूल गयी थी दूध को उबालते उबालते। ... धुआं हो रहा था पर सामने ही बैठे राधा न जाने कहाँ खो गयी थी.
पायल के घुंघरू क्यों निकाल रखे हैं?
राधा को आभाष होता है, घर आ गया.
क्यूँ निकाल रखे हैं?
इसबार जरा जोर से पूछता है आयान.
हाँ? वो? गिर गए शायद..
या इसलिए निकाल दिए की तुम्हारे आने जाने की आहट भी न हो?
कहते हुए राधा की मेहँदी लगी हथेलियों पर घुँघरूओं का गुच्छा रखकर, उंगलिया बंद करता है.
राधा मुठ्ठी कसे अपने कमरे में ही अपने कदमों को गिन गिन कर प्रवेश करती है. कही किसी कुरुक्षेत्र में कोई जानी पहचानी आवाज में कहता है, कर्म कर... फल की कामना नहीं.
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