चलो अभी अपने अपने हिस्से का जीते हैं 
वही रुको मदिरालय में, मिलकर पीते हैं 
कौन किसी से पूछे, क्यों उम्मीदें बांधे 
अभी उधारी के धागो से, लम्हें सीते हैं 

रंग बिरंगी राते , बस फुसलाने वाली 
और चटकती धूप , देह झुलसाने वाली 
पाँव फफोलों से जब भर जायें, तो आना 
मदिरालय की राहें , मदिरा से रीते हैं 

पूरे हो जाएँ ख़्वाब , तुम्हारे भी मेरे भी
इसके, उसके, सबके कुछ भले बुरे भी 
और प्रतीक्षा की चांदनी प्यालों में भर दूँ 
टकटकी में मदिरालय की शामें बीते हैं 

बड़ा नहीं कुछ करना, सब नन्हा सा है 
अब तो लगता है, कौतुहल अँधा सा है 
गजभर आगे जाना और फिसलना फिर खाई  में 
हम मदिरालय के ग्राहक , कैसे जीते हैं ?

लगी रहेगी भागा दौड़ी , एक और बस एक 
कभी तो साँसे लेंगे , देंगे सारा बोझा फेंक 
कुछ खोकर कुछ पाकर, करके रफ़ा दफ़ा 
हर दिन मदिरालय में खाते खुलते ही रहते हैं 

चलो अभी अपने अपने हिस्से का जीते हैं 
वही रुको मदिरालय में, मिलकर पीते हैं

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