मैं बनाकर ताजमहल , अपने मक़बरे पर
पढ़  लिया करती हूँ, कलमा इश्क़ का
मर चुके है ख्वाब, और अरमान, और वो रूह
बस नहीं मरता, कमबख़्त , जज़्बा इश्क़ का 

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