तिरस्कार

प्रेम और आकर्षण से सराबोर
ह्रदय लेकर, आयी थी तेरे द्वार
पट जरा विलंब से खुले, और
सामने तुम थे, भरे नैनों में तिरस्कार

अकस्मात् हुयी इस मुलाकात से
कुछ चौंक तो गयी, पर सम्हली तुरंत
देखा, कुछ धुंधली धुंधली पर सन्मुख
तुम्हारे विरक्ति में, होता भ्रम का अंत

अश्रुओ को कंठ में अटकाए
बड़े भोलेपन से मैं मुस्काई
तुम्हारी मंगल कामना और
कैसे हो? बस देखने थी आयी

तुमने न पूछा, हाल फिर पलट कर हमारा
और हँसते हुए, विदा परायों सा किया
हम भी चल दिए, ठोकरें मारते कंकड़ो को
कहो? मैं न कहती थी? अब यकीं हुआ ?


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