अपने पत्ते वो जिगर के पास रखती है
पर तेरी नज़रो में एक्के भांप लेती है
खोलना एक राज़ को , एक राज़ से
बच सका है कौन, इस अंदाज़ से
कुछ ख़ास न होकर, वो बेहद ख़ास होती है
आम सी बनकर, यूँ क़त्ले आम करती है
तुम सोचते हो, इश्क की गलियों में खो गए
हक़ीक़त है की, हुश्न की कठपुतली हो गए
अब दुआ नहीं ,दवा नहीं, हो न वक़्त मेहरबां
बस सुलगते रहो, की बड़ा सख़्त दिलरुबा

चुभता भी है , डसता भी है पर छूटता नहीं
मामला बड़ा संगीन , हौसला टूटता नहीं

धड़कनों को दिल से ,भला अब गैर क्या करे
ये इश्क़ की आंधी है, ख़ुदा ख़ैर अब करे

ख़ुदा ख़ैर अब करे

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