आज झरोखों से झांकती
चांदनी खोजती है
कहाँ है वो आंखे जो शाम से
आस्मां को ताकती है
कही उसने उम्मीदों को
भी उसीमे तो न बहाया
जो नदी वो आँखे
छिप छिप के बहाती है
मायूस चाँद पूछ रहा है
और है चांदनी चुपचाप
क्या ऐसे ही बुझ जायेंगे
खिड़कियों पे रखे चिराग़
हूँ मजबूर, की मैं भी
बस रात का मुसाफिर
न जाने सूरज दिन भर
इन्हे, कितना जलाता है
चांदनी खोजती है
कहाँ है वो आंखे जो शाम से
आस्मां को ताकती है
कही उसने उम्मीदों को
भी उसीमे तो न बहाया
जो नदी वो आँखे
छिप छिप के बहाती है
मायूस चाँद पूछ रहा है
और है चांदनी चुपचाप
क्या ऐसे ही बुझ जायेंगे
खिड़कियों पे रखे चिराग़
हूँ मजबूर, की मैं भी
बस रात का मुसाफिर
न जाने सूरज दिन भर
इन्हे, कितना जलाता है
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