बेचैन

बेचैन

जहाँ सारी दुनिया चैन और शुकून ढूंढ रही होती है, हमारी मीरा बेचैनियाँ जमा करने में माहिर है. ऐसा नहीं की दुनिया में कुछ कमी है बेचैनियों की, लेकिन फिर भी ढूंढ ढूंढ कर वही जमा करना? ये क्या बात हुयी आखिर?
चाहे वो बेचैनी हो, अंदर एक कुलबुलाती कहानी के रूप में या फ्रिज में पड़े भिंडी की चिंता में की आज न बनाये तो कही सड़ न जाये. जी, भिंडी से लेकर साहित्य तक के दायरे में जितनी बेचैनियों की कल्पना की जा सकती है , वो सब के मीरा के ही हिस्से में आ गए हैं.
पर मीरा हमेशा ऐसी तो न थी?
उसे तो भिंडी करेले या पालक, यहाँ तक की नीम तक से कोई उलझन नहीं होती थी. सब को सप्रेम आदर पूर्वक अपना लेना ही उसको आता है ,  तभी तो माँ को कम से कम एक परेशानी कम थी मीरा को लेकर. हाँ, धुप में घंटो बैठकर पेड़ पौधो या बादलों से बातें करना थोड़ा चिंताजनक तो था पर अब सबकुछ तो नहीं हो सकता न।
बारिश हो जाए तो गड्ढो में छलांग लगाकर खुश और कड़ाके की धुप हो जाये तो फ्रिज के आइस क्यूब के साथ खेल लेना , कौन सी समस्या ऐसी थी जो मीरा के बस के नहीं थी भला?
फिर ये बेचैनियों के जो झाड़ फानूस उग रखे हैं आज, वो आये कहा से?
कौन बो गया इनके बीज , इसके मन में? यहाँ तो बस हंसी ठिठोली और गहरी गहरी कल्पना की फसलें लहलहाया करती थी.
हो न हो ये उस मुये कृष्ण का काम है.
अब एक दिन, लाइब्रेरी के एकांत में किसने सोचा था की कोई बांसुरी छेड़ जायेगा? हाँ, किसी ने नहीं सुनी. बस मीरा ने सुनी.
अब कोई मानेगा की कृष्ण खुद आये थे, मीरा के लिए मधुर तान छेड़ने और लाइब्रेरी के पिन ड्राप साइलेंस में भी किसी को कोई भनक तक न होगा.
तब तक , बस उस दिन तक ही मीरा थी एक चंचल हिरनिया अपने मन के बागो में विहरति. उस दिन, लाइब्रेरी से वो सीधे घर भी न आयी.
बैठी रही गंगा के घाट पर घंटो , टकटकी लगाए देखा उसने डूबते सूरज को और आते जाते नावों को विलीन होते।
हमने तो ये भी सुना है की वो समा जाने वाली थी गंगा की गोदी में, लेकिन फिर एक हवा चली और उसकी डायरी के कुछ उधड़े पन्ने उड़ने लग गए.
और मीरा की तो जैसे जान ही निकल गयी. अपनी गहरी साधना छोड़, अपने दोहे बचाने भागती रही पूरे घाट पर. हवाएं जिधर जिधर ले गयी उसके पन्ने वो बस दौड़ती झपटती रही उधर जबतक सारे समेट न लिए. और फिर उन्हें बाहो में भर कर फूट फूट कर रोई.
बस वही आखिरी दिन था.
उसके बाद से जैसे, मीरा कोई आम हिरन नहीं रही.

उसे उस कस्तूरी महक का आभाष हो चला था जो लहक गयी थी बस एक धुन पर. धुन वापस न आयी कभी, लेकिन कस्तूरी को खोजने की बेचैनी ने अपने डेरे डाल लिए मीरा के मन में.
बस, क्या कहें. तभी से कुछ ऐसा हाल है हमारी मीरा का.

हर पल न जाने क्या ढूंढ रही होती है, खुद भी नहीं जानती.

सब कहते हैं, महल अटारी सब तो है , फिर क्या रखा है इन डायरी के पन्नो में ऐसा की अगर कभी एक झलक ख़ुशी की दिखती है इसके चेहरे पे तो वो तब जब वो उन्ही पन्नो को तह कर रही होती है जो कभी गंगा के घाट पे उड़ चले थे.

अब और क्या लिखूं, कितना लिखूं? बस सोचती हूँ किसी दिन मीरा की बेचैनियों को आराम मिले। अब अगर वो गली गली गीत गाकर ही होना है , तो हो जाए. कृष्ण की बांसुरी और बिरह तो उसकी नियति है, पर कम से कम बेचैनियों को तो राहत मिलनी चाहिए न ? इतना तो हक़ सबका बनता है, मीरा का भी.
अब न जानी भगवन की क्या मर्ज़ी है, अब तो ब्रोक्कोली , ऐस्पैरागस और ब्रूसेल स्प्राउट्स तक की रेसिपी खंगाल डाली है मीरा ने... लेकिन न आजाद हो नहीं अपने डायरी के पन्नो से, न ही कृष्ण से और न ही इस पल पल एसिड के जैसी ह्रदय पर टपकती बेचैनियों से.






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