प्रेम को पहचान लेना, जानना, समझना और जी लेना तो बड़े बड़ो के बस की बात नहीं, तो मैं कौन सी खेत की मूली हूँ. लेकिन, बाते तो कर ही सकते हैं.
तो ये आखिरी इन्सटॉलमेंट लिख रही हूँ, प्रेम को पहचानने की.
प्रेम में पड़े हुए लोगो के साथ ऐसा अक्सर होता है की, मिलते - बिछड़ते और मिल-मिल के बिछड़ते कई बार ऐसा लगने लगता है जैसे मिलना बिछड़ना अब कोई मायने ही नहीं रखता। समय की गति कभी मंथर तो कभी और भी मंथर हो जाती है। कुछ भी कर लो वो जूनून है या शुकुन , इसका फैसला दिल कर ही नहीं पाता . 
वो नहीं होकर भी है , और ये अब तो रगो में बहने वाला कुछ लाल-लाल सा गर्म-गर्म सा पदार्थ बन गया है.
कभी कभी जी में आता है , इसकी एक एक बूँद को अपनी धमनियों से बहा दूँ. लेकिन ये भी पता होता है की इनके साथ थोड़ा थोड़ा खुद भी ख़तम होना पड़ेगा. वो है, तो कुछ कहीं धड़क रहा है अभी है.
कुछ तार कहीं जुड़ गए हैं और इनमे से होकर इलेक्ट्रिसिटी अब ऐसे निरंतर बहती है की, क्या कहने. थाउजेंट वाट का बल्ब जैसे खिल जाता है चेहरे पर और जो छू ले उसे भी रौशन कर देता है. पारस मणि बन जाते हैं हम, और ये सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह से हो सकता है. 
क्या? अब ये भी बताना पड़ेगा? 
तो ये रहा अंतिम लिटमस पेपर टेस्ट, और इसमें कोई चीटिंग नहीं. ठीक है?
अपना दायां हाथ अभी सीने पे रखो.
मजाक लग रहा है? अब रखो भी.
हंसी भी आ रही होगी , है न? फिर भी, एक बार. ट्राई तो करो.
और अब, कंधो को ढीला छोड़कर, बस घूम आओ एकबार उस गली को , छू आओ उस दुपट्टे को, गिर जाने दो उसकी छत पर पतंग एकबार, टूट जाने दो साइकिल की ब्रेक फिर से उसकी बालकनी के आगे , गिरा दो फिर एक रुमाल, बढ़ा दो फिर से घडी के कांटे एक बार फिर, बाँट लो फिर से एक नारियल पानी, जाग लो एक बार फिर एक और रात, छिपा लो फिर से वो फूल पन्नो में ,  रंग दो हर एक रंग में उसकी हर याद को, जला दो दिए फिर से हर उस मोड़ पर जहाँ से वो गुजरा होगा , लिख दो उसने नाम एक और ग़ज़ल, एक और कहानी, कुछ मुकम्मल और कुछ नहीं .
.....बस अब आंखे बंद कर लो. २ सांस भर, एक तुम्हारे नाम और एक उसके.
हाथ अभी भी सीने पे ही है ?
दौड़ रही हैं क्या कुछ बिजलियाँ ?
तो बस बहने दो, इस विद्युत् को.
वैसे भी इसे रोकना अब तुम्हारे या मेरे बस की बात कहाँ रही?
अब पहचाना?

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