इम्तेहान और इंतज़ार

ख़ाक पहचानोगे

सच में, अब तक नहीं समझे तो अब ख़ाक समझोगे?

बड़ा गुस्सा आता है मुझे, सेल्फ प्रोक्लेम्ड आशिकों पर. तुम्हे लगता है की तुम्हे तो पक्के से प्यार ही हुआ है, अब बस ये पकड़ना है की सामने वाले को भी है या नहीं. बस हाँ में एक हाँ मिल जाए तो हो जाये जुगल बंदी और कन्फर्मेशन. क्या है यार?

कोई कॉन्ट्रैक्ट लिखने निकले हो क्या? कहने को बस की हम तो "प्रेम की खोज" में हैं? गड्ढा प्रेम।

प्रेम का प्र समझने में लोगो की उम्र गुजर जाती है और तुम्हे तो उम्मीद है की सारी  जिंदगी प्रेम के किसी एम्यूजमेंट पार्क जैसी होनी चाहिए. एक झूले से उतरे, दूसरे में बैठे. एक रोलर कोस्टर में मजा नहीं आया तो दूसरा ट्राई किया। यही न?
और फिर बोलो की, अरे खोज में हैं तो ट्राई करते रहना पड़ेगा न. अगर खुदा न खासते रोलर कोस्टर बीच में रुक गया तो? ख़राब हो गया तो? प्यार भी कम हो जायेगा। लेकिन अभी अभी तो तुम इसपे सवार हवा से बाते कर रहे थे? अब रोलर कोस्टर नहीं बोलता तो तुम भी निकल लोगे है न?

खैर, मैं तो अगले निशानी की हिंट दे रही थी.

इम्तेहान और इंतज़ार। दोनों ही प्रेम की नियति हैं. कई बार इंतज़ार ही इम्तेहान होता है, मीलों लम्बा और बेइन्ताह खामोश। इतना खामोश की अपनी साँसों की आवाज भी अँधियो जैसे लगने लगती है , खुद को बांहो में भर भर के तसल्ली कर लेनी पड़ती है और , बाहें थक जाती है पर इंतज़ार ख़त्म नहीं होता.
हर इंतज़ार का लम्हा उसकी यादो से हमेशा एक आध इंच छोटा ही पड़ जाता है। भले ही वो यादें कुछ घंटो की ही क्यों न रही हो, कई बार उम्र भर के इंतज़ार की वजह बन जाया करती है.

हाँ, ऐसा वाला भी होता है प्रेम.

एंट्री तो आपने एम्यूजमेंट पार्क की सोच के ली होगी, की बस अब तो सब कुछ रोमांचक और रंगीन होने वाला है , लेकिन शायद आपके आते ही सबकुछ किसी सहारा के रेगिस्तान में बदल जाए और आप ठिठके रह जाये उस तलाश में जो किसी एक पल में आपको सच में छू के गुजर गया हो. ये रेगिस्तान कई आशिको की किस्मत में आता है, और वो सारे किसी न किसी वेबसाइट पर कविता कहानी लिखते और कभी कराओके में गाने गाते मिल जाते हैं. पर इस रेगिस्तान में कभी कभी झूम के बारिश होती है।, और जब होती तो उफ़, क्या होती है. साँसे , सलवटें और शुरूर इन बारिशो में जैसे भीग भीग कर ऐसा जवान होता है जैसे कभी इसने इंतज़ार जाना ही नहीं. और फिर, दिलों की आग में सिंकती है लम्हो की रोटियां तो भर देती है जमानो से भूखी रूह को. हरी हो जाती है फिर से लत और लह लहाती है चारो और और एकबार फिर उसपर खाली पैर , तुम्हारी उंगलिया थामे चल पड़ती हूँ मैं, डूबते सूरज की ओर.

लेकिन, उसके पहले चिलचिलाती धूप में बैठना भी तो होगा?

बैठने की कूबत हो तो कहो?

वरना रहने दो, बहुत देखे हैं प्रेम की खोज की नाम पर सिर्फ और सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट की तलाश करने वाले वो भी टाइम लिमिट के साथ.

न करे जो इंतज़ार
रहे इम्तेहान से दूर
वो ख़ाक जाने दर्दे-इश्क
ख़ाक समझे वो शुरुर  

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