अब कहाँ हिमालय और कहाँ निआग्रा.

अब कहाँ हिमालय और कहाँ निआग्रा.
है कोई तुलना? हिमालय युगो युगो से अचल, अडिग, सूरज की ऊंचाईयों को छूता हुआ , मीलों फैला हुआ पर्वत। ऐसा पर्वत जिसकी गोद में हिमनदियों का जन्म भी होता है, पालन भी। खेल कूद से लेकर यौवन प्राप्त कर विकल उत्श्रृंख नदियाँ यही से निकल कर बढ़ चलती है सागर की ओर . कितनी ही विहड़ों और जंगलो को रौंद देने की ताकत वाली ये नदियां , हिमालय के घर से ही तो आती है. ऐसा विशाल और सक्षम ह्रदय, तो बस हिमालय ही जान सकता है.
और दूसरी और है निआग्रा, जो स्थिर होकर भी निरंतर बहती है गरजती तरजती। तीन नदियों , दो देशों और कई सारी झीलों का पानी आता है और टूटकर गिर पड़ता है असंख्य जल कणो की रूप में. ऊंचाइयां इसकी हिमालय की चोटी के तुलनात्मक तो नहीं, पर इसकी गति और आकार भी कुछ अतुलनीय है. जिस तेज से यह टूट कर गिरती है, वही ह्रदय ही जान सकता है इस वेदना को जिसने प्रेम को चखा हो. एक धुंध सा बना लेती है निआग्रा अपने चारों ओर , जैसे बाहुपाश में कस लिया हो और अब किसी की भी नजर न पड़ने देगी. जी, प्रेम थोड़ा स्वार्थी और लालची भी बना जाता है आपको कभी कभी. शायद इसीलिए , यु तो मीलों दूर से हम सुन पाते है निआग्रा की गरज, देख भी लेते है ऊपर उठ रहे जलकणो के बादल मीलों तक , पर ये कदापि नहीं जान पाते की कौन है इसके ह्रदय में.
ठीक वैसे ही , जैसे देखते हैं हम ठिठका हुआ हिमालय, विशाल आवरण ओढ़े पालता पोसता युगो युगो से, किसे ? क्यों? किसके लिए? कदाचित , निरर्थक है ये जानना।
यही तो एक ऐसी चीज़ है की नहीं जान सकते इसका आदि और अंत.
क्युकी, कहाँ होता है प्रेम का अदि और अंत.
प्रेम तो जन्म ले लेता भ्रूण में ठीक तब, जब ह्रदय में पहली बार कम्पन होती है. बिना प्रेम का एक शरीर दूसरे शरीर को अपने अंदर ऐसे ही सींच लेता है क्या भला? एक शिशु का अपनी माँ के कोख में हो जाना प्रेम से प्रथम आलिंगन, नियम है प्रकृति का. किसी को भी पता नहीं होता, ये हो रहा है. ह्रदय में ये बीज बो दिए जाते है, धड़कनो में एकदम शुरुआत से ही.
जैसे जैसे हम युवा होते है , भावनाये इधर उधर कुछ आपा धापी में खोयी खोयी सी हो जाया करती है. पर, अपने जैसे किसी और से मिलने की आकांक्षा और फिर उसमे मिल जाने का उद्वेग दबी दबी सी रहती है हमेशा। और, किस्मत अच्छी रही तो वो दिन आता ज़रूर है. किस्मत ज्यादा अच्छी हुयी, तो वो दिन बार बार आता है. और अगर , आपने कुछ बड़े पुण्य किये है किसी जनम में तो यह प्रेम का संग सदैव रच बस भी जाता है आपके जीवन में.
ऐसे में, अतिआवश्यक है की आप बस भीग जाये उस बारिश में। चाहे वो एक दिन बरसे या पुरे हफ्ते। बरस बरस कर कुछ रूठने वाले बादल होते हैं प्रेम के, आदत है उनकी. स्वार्थ और लोभ में फंसे तो अत्यंत दुख के भागी बनेंगे और कही छतरी रेनकोट के चक्कर में पड़े, तो भी आपका ही नुकसान होने वाला है.
तो बस , जैसे और जब बरसे न ये प्रेम वाले टाइप के बादल , बस हिमालय जैसे बांहे फैलाकर खड़े हो जाईये, अपनी आंखे मूँद कर और गरज गरज कर टूट टूट कर गिरने दीजिये अपने ऊपर इस प्रेम को, किसी निआग्रा जैसे जलप्रपात की तरह.
अब इसमें अगर दो-चार हड्डिया या ह्रदय के मसल्स टूट भी जाए तो वो बाद में देख लेंगे.
क्यों?

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