अधूरी कहानी



धरा - सवाल पर सवाल?

आकाश  - पर जवाब एक नहीं 

धरा - क्या जवाब दूँ और कैसे?

आकाश - तुम तो कहानियां लिखती हो, बना लो कुछ भी.

धरा - कहानियां तो तुम भी कम नहीं बनाते, हर रोज़ कुछ न कुछ नए किरदार 

आकाश - अच्छा? 

धरा - हाँ, और क्या। ऊपर से सब की सब अधूरी। 

आकाश - तो तुम ही पूरी कर लो.

धरा - करुँगी, जब वक़्त आएगा। 


कहकर, धरा ने चुपचाप अपने रंगो की बास्केट उठायी, साथ में कैनवास , इसल और ऊपर ताक पे रख छोड़े ख्वाब भी. 

और, निकल पड़ी ढूंढने कोई ऐसी जगह जहाँ से कुछ ऐसा दिख पाए की वो ख्वाब अधूरे ख्वाब जिंदगी में न सही पर कैनवास पर तो पुरे होते दिख सके. 

न जाने कितने कैनवास , कितनी पहाड़िया और कितने ही सूरज उग  कर ढल चुके हैं पर धरा की उम्मीदों की उम्र अभी बाकी है. 

आकाश उन ख्वाबो की तकदीर नहीं हो सकता है, जानती है की बस वो यु ही कुछ कहने और देखने भर को आया जाया करता है. कई बार बादल भी भेज दिया करता है, जिनमे वो जी भर भीग लेती है. 


आज आस्मान साफ़ है, और कही कोई नहीं। नितांत एकाकीपन ही तो अंतरंग मित्र बच गया है अब, सोचकर ठहाके लगा पड़ती है धरा और गूँज जाती है वादियां. 

कुछ लाल , कुछ पीली , कुछ सफ़ेद और कुछ गुलाबी कलियाँ भी छिटक कर खुल जाया करती है उसकी हंसी सुनकर। 


पर न जाने क्यों, कितने भी रंग भर ले धरा कुछ न कुछ बाकी सा रह ही जाता है. और मन मसोस के रह जाती है, पर जिद है की कोशिश नहीं छोड़ती। 


क्या होगी ये कहानी कभी पूरी? 

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