मैंने कहा तो था तुमसे
कभी आँखों से
कभी बातों से
कभी रो कर
कभी चुप रहकर
कभी लिखकर
कभी गुनगुनाकर
कभी कभी तो छिपाकर
कई बार सुनाकर
कभी तड़प कर
कभी चीख कर
कभी तुम्हारी आदतों
को सीख कर
कभी रंग कर
कभी थिरक कर
कभी सेहमी हुयी
कोने में ठिठक कर
अब ये क्या की
तुम सुन ही न सके
ढेले भर की डिग्रियां
जो तुम पढ़ न सके?
अब शब्द नहीं है
रंग भी उड़ गए
बेरुखी की धूप में
एहसास भी झड़ गए
अब मैं टूटे घुँघरू
समेट लूँ सहेज लूँ
जो था ही नहीं उसे सवारा
अब खुद को सवार लूँ
आईने को देखकर
मुस्कराती हूँ , तो वो भी हँसता है
मैं तो हूँ न तेरे संग
यकीं हर बार, मुझे देता है
रह लुंगी , हंस लुंगी
शुकून इतना तुम रखना
पढ़ने, सुनने लगो जिस तरह
वैसा, कुछ तुम भी कर लेना
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