आओगे जब तुम साजना

 आओगे जब तुम साजना 


चाय की प्याली आधी पड़ी, ठंढी हो रही है और मीरा न जाने किन खयालो में खोयी अभी भी मुस्कराये जा रही है. कानो में कोई धुन लगातार बजे जा रही है और होठो पर  हंसी थिरके जा रही है. भोर का सूरज आसमान में अठखेलियां करने को उचकने सा लगा है और प्रकृति उसके आगमन में सारे रंग न्योछावर किए जा रही है. 


अच्छा तो क्या  कहा था उसने? 


आओगे जब तुम साजना... अंगना फूल खिलेंगे?

 

अच्छा?


मेरे न होने  से क्या फूल नहीं खिला था तुम्हारे आँगन में अर्सो से? फूल तो खिलते ही हैं मौसम के आने से हर साल. 


मैं कोई हवा पानी और मिट्टी तो हूँ नहीं , बसंत तो बस ऐसे ही आता है और फूल लहलहा ही उठते हैं. 


हाँ अब ये और बात है की कोई कोई मौसम बार बार नहीं आता. ऐसे भी कुछ मौसम होते हैं, जो बस एक बार आकर चले जाया करते हैं , उनमे फूल नहीं खिला करते. बस लम्बी घास पीछे छोड़ जाया करते हैं उन पटरियों के इर्द गिर्द जहाँ से कुछ तेज़ रफ़्तार से रेलगाड़ियां गुजरती रहती है बरसो बरसो तक. 


और कभी कभी, उन्ही रेलगाड़ियों में बैठा कोई गुनगुना रहा होता है "ये दिल और उनको निगाहों के साये". 


वो मौसम जा चुका है, वो घास सूख चुकी है पर अब क्या किया जाए.... हवा, मिटटी और भरी हुयी बदरियो के बरसने का? 


एक हलकी सी हंसी के साथ अपनी चाय की आधी प्याली  खाली कर मीरा  हैडफ़ोन बगल में रख, चल पड़ती है दिनचर्या के लिए. उसके मंदिर वाले कृष्ण के नास्ते का वक़्त हो चला है.  


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