राधे राधे राधे श्याम , गोविन्द राधे हे जी राधे.
राधे राधे राधे श्याम , गोविन्द राधे हे जी राधे.
मॉर्निंग वाक और कृष्णा दास की रूहानी आवाज़ में इस कीर्तन की धुन , जैसे किरणों को और भी तेज़ और भी ताज़ी करे दे रही है. पैर रास्ते पहचानते हैं और दिमाग अपनी बहकी बहकी खयालो की रफ़्तार। फिर क्या है , कुछ इस तरह भागते हैं ख्याल.
इस कीर्तन की हर लाइन में , राधे पांच बार है और श्याम दो ही बार वो भी एक बार तो नाम बदलकर ? क्यों भला?
कहीं इसलिए तो नहीं की कृष्ण को कई रूप धरने है महाभारत तक की यात्रा में और भगवत गीता की रचइता बनने में , और उधर राधा तो बस एक ही वजह से जानी जाती है. अटूट और अथाह प्रेम। वैसे प्रेम बिना धैर्य और साहस के नहीं होता , तो जायज है ब्रज की इस छोरी में वो भी कूट कूट के भरा है। वरना दुनिया ने जब इसकी मूरत कृष्ण के साथ गली गली और घर घर में लगा डाली तो वो चूं भी न करे ? ऐसा साहस और धैर्य के बिना हुआ है क्या भला?
तो फिर क्या था , दिमाग ने रच डाली एक और थ्योरी. कृष्ण और कुछ नहीं बस कर्म और जीवन के प्रत्येक अध्याय की ऊंची नीची होती जैसे एक पर्वत श्रंखला हैं जिसके फाउंडेशन में बहती है साहस धैर्य और अंतहीन सी, कलकलाती , झूमती , लहराती राधा नाम की एक नदी। अपने आप में सम्पूर्ण , हर बाधाओं को तोड़ती और कही न कही किसी मिलन को बेचैन , न रूकती न ठहरती राधा.
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