प्रेम - तलाश ख़त्म
"गोरे बदन पे, उंगली से मेरा , नाम अदा लिखना " - गुलज़ार
किसने लिखा , किसने पढ़ा और किसने समझा? अब कौन माथापच्ची करे इसमें।
हम तो बस श्रेया घोषाल के अंदाज पर कुर्बान हो लिए और यकीं भी कर लिया की "रातें बुझाने तुम आ गए हो".
प्रेम - तलाश ख़त्म .
आज बड़े दिन बाद, इस कड़ी में एक और जोड़ देने का मन हो चला है.
क्यों? ऐसी कोई वजह नहीं है मेरे पास आज देने को. और आपको भी, आम खाने से मतलब होना चाहिए न की पेड़ गिनने से. पिछले साल की मई के बाद , नहीं लिख पायी थी कोई और कड़ी. जैसे जंजीरो से ही रिश्ता तोड़ लिया हो मैंने. लेकिन अब ऐसा लगता है, मेरे अनदेखे कर भी देने से ये जंजीरे मुझे अकेला नहीं छोड़ेंगी.
और फिर ये ख्याल आया की इंसान जंजीरो में पड़े रहने को ही तो कही प्रेम नहीं कहता हैं?
न, जंजीर खुद प्रेम नहीं होता पर हमारी तीब्र आकांक्षा किसी न किसी जंजीर में बंधे रहने की और बाँध लेने की, कई बार प्रेम कहलायी चली जाती है.
हाँ, अब ये भी सच है की बिना प्रेम किसी को बाँध लेना, या बंध जाना संभव भी नहीं. लेकिन बस बंधे रहना भी तो प्रेम का हासिल नहीं। प्रेम, प्रतिष्ठा और प्रेरणा उतनी ही मिलेगी जितनी हिस्से में होगी. न कम , न ज्यादा. प्रकृति की रीत तो यही है की जो जितना जिसका है , वो कोई चाह के भी नहीं ले सकता और जो नहीं है.. वो मिल भी नहीं सकता। तो फिर तलाश कैसी? तलाश किसकी?
वैसे भी, जब गुमशुदा लोग ही दुनिया के फ़र्ज़ी लोगो द्वारा बांटे गए नक्शों को लेकर अपनी जिंदगी और अपना प्रेम तलाशने निकले हो, तो उन्हें मंजिल क्या ख़ाक मिलेगी.
लेकिन अपनी ये तलाश परेशां, बेचैन और अधूरी लगे , ये ज़रूरी नहीं।
शायद तलाश ही हमारा , हासिल हो?
शायद सफर ही हमारी मंज़िल हो?
और मंजिल है ही क्या कही?
हमारी ये खुशनुमा सी , हलकी फुलकी सी , सर्दियों की धूप सी , बारिश की बूंदो सी, पतझड़ के पीले पत्तो सी, नयी उग आयी हरी घास सी, एक सुलगते हुए अर्सो की उम्र वाले लम्हे सी, चादरों की सिलवटों सी, किताबो में बंद सूखे गुलाबों की पंखुड़ी सी , गीली मिट्टी की खुशबु सी , बिन पते लिखी गयी चिठ्ठियों सी।
साँसे फूल गयी मेरी , सोचते सोचते.
और क्या ही है प्रेम , अगर ये सब नहीं तो?
फिर कैसी तलाश ?
प्रेम शुरू भी हम से होता है और खत्म भी हम से. किसी अंतहीन से पानी के झरने जैसी , अब इसमें कोई आकर आपके साथ भीग ले तो शुभान अल्लाह.
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